Monday, 18 December 2017
बिनोद बाबू के संदेश
बिनोद बाबू के संदेश
1. लडना है तो पढना सिखो।
2. सभी का सम्मान करो लेकिन अन्याय बर्दाश्त मत करो।
3. तुम्हें कोई मारता है तो जवाबी हमला करो।
4. किसी के मार खाकर मरने से अच्छा है मारकर मरो।
5. हमलोग क्रांतिकारी हैं कोई जालिम या जमींदार नहीं। इसलिये दुश्मन पर हमला करते समय इस बात का ख्याल रखें कि बच्चों और महिलाओं को नुकसान न पहुंचे।
6. न्यायलय-प्रशासन सभी जमींदारों के साथ है इसलिये गरीबों की आपसी एकता हीं काम आयेगी।
7. गरीबी से कभी मत घबराना उसे कमजोरी की वजाय अपनी ताकत बनाओ।
8. अपने महापुरुषों का हमेशा सम्मान करो। इससे गलत रास्ते में जाने से बचोगे और संघर्ष करने में हमेशा नैतिक बल मिलेगा।
9. संघर्ष के रास्ते में आगे बढने पर बहुत सारे लोग प्रलोभन देंगे। तुम्हें बदनाम करने की कोशिश करेंगे। प्रचार करेंगे। इससे कभी मत घबराना क्योंकि जो हम लड़ाई लडने जा रहे हैं उसमें यह सबकुछ सहना होगा।
10. हमारा मूल मकसद ऐसे अलग झारखंड राज्य का गठन करना है जिसमें वास्तव में समानता हो। लोगों की बुनियादी जरूरते पूरी हो सके। हम झारखंडवासी दुनिया भर में एक सकारात्मक योगदान दें सके। हमारे क्षेत्र में विकास के सभी संसाधन मौजूद हैं। जरूरत है सिर्फ ईमानदार कोशिश की।
Friday, 17 March 2017
बिनोद बाबु के बाद कुडमी समाज मे सर्वमान्य नेता का अभाव है जिस कारण कुडमी बोट बिखरा हुआ है ।इसका एक कारण ये भी है कि वर्तमान में जितने भी कुडमी राजनेता है लगभग सभी स्वार्थी सत्तालोलुप और पद पावर और पैसा के पीछे भागने वाले है ।पर आम कुडमी इनसे इत्तेफाक नही रखते हैं । कुडमी नेतृत्व के प्रति आम कुडमी मे काफी रोष है यही कारण है कि कुडमी बहुल क्षेत्रों में भी कोई कुडमी नेता जीत नही पाता है ।कुडमी अपनी खीझ निकालने के लिए उसे ही वोट करते हैं जो कुडमीनेतृत्व को हरा सके ।सबक सिखाने की इसी प्रवृत्ति का फायदा कही कही भाजपा को भी मील जाती है, बस ।जरूरत है झारखंडियो की बिना भेदभाव वाली एकता का,साथ ही टीकट बटवारे में जातीय समीकरण के साथ साथ योग्य उम्मीदवार चयन की, ताकि लोगों को यह न लगे कि हमपर उम्मीदवारथोपा जा रहा है या हम केवल वोटमरवा बनाकर रह गये है ।फिर परिणाम देखिए ।
----- Dr Rakesh Mahato
Saturday, 21 January 2017
#CNT_SPT_Act #Jharkhand
झारखंड मे औद्योगिक विस्तार के समय लाखों एकड़ जमीन सरकार के द्वारा अधिग्रहित की गई, हजारों एकड़ जंगल साफ हो गये। इन उद्योगों में नौकरी, व्यवसाय, रोजगार, ठेकेदारी पाने के लिए झारखंड क्षेत्र से बाहर के लोग तेजी से भारी तादाद में यहाँ आने लगे। यहाँ जो शहर औद्योगिकरण के चलते बसे उनमे बाहरी
क्षेत्र के लोग बसते गये। स्थानीय मूलवासी इन शहरों से दूर हटने लगे। नये नये लोगों का दल पनपने लगा। मॉफिया- संस्कृति पनपी। अपराध बढ़ने लगी..
झारखंड के मूलवासियों को चोतरफा मार झेलनी पड़ी। एक तो वे अपनी जमीनों से विस्थापित होने लगे। जमीनों से विस्थापित होने के साथ-साथ बाहरी संस्कृति के प्रवेश से झारखंडियों का सांस्कृतिक-विस्थापन भी शुरू होने लगा। फिर अशिक्षा के चलते सरकारी महकमों मे भी कम थे सरकारी नौकरी से वंचित थे, नये खुलने वाले कलकारखानो, खदानो मे भी इन्हे नौकरी नहीं मिली। इन्हें कोई हिस्सेदारी नहीं दी गई। बहुत कम लोग स्वतंत्र व्यवसाय करना जानते थे। फिर इनके
पास पूँजी भी नहीं थी। पदाधिकारी चाहे सरकारी हो, या
प्राइवेट कम्पनियों के सभी बाहरी व्यक्ति।
जंगलों से भी मूलवासी -आदिवासियों का विस्थापन होने
लगा। जंगल के कानून मूलवासियों के हक में नहीं हेने के कारण,
जिन जंगलों पर उनका जीवन आश्रित था, वे जंगल ही उनके लिए
बेकार होने लगे। जंगल पर आधारित झारखंडियों का जीवन नष्ट
होने लगा। जंगल की सारी सम्पदा, उनका उत्पाद फूल, फल,
कंद, पत्ते-पौधे, पेड़ जड़ी बूटी सभी का सरकारी करण हो गया।
जंगल के पहाड़ो के पत्थर, मोरम, बाँस, घाँस, नदी, नाले सभी
सरकारी हो गये।
। सरकारी उपेक्षा के चलते
विस्थापितों को कभी उचित मुआवजा भुगतान नहीं मिला।
दशकों तक मुआवजा भुगतान नहीं किया गया। उनके पुर्नवास
की कोई नीति नहीं बनाई गई। न ही उनका पुर्नवास किया
गया। कोई अपने हक अधिकार की बात करता तो उन्हें
गोलियों से भूँजा जाता। महाजनी शोषण, सूदखोरी अपने चरम
पर पहुँच चुका था। संगठित रूप से, षंड़यंत्र करके शराब खोरी की
आदत मूलवासियों, आदिवासियों में डाली जा रही थी।
स्थिति ऐसी बन गई कि झारखंड़ी औने-पौने दामों पर अपनी
जमीनें बेच देते। या फिर सूदखोर-महाजन उन पर कब्जा कर लेते।
प्रतिवर्ष झारखंड के गरीब लोग देश के दूसरे प्रदेशों में मजदूरी
करने के लिए पलायन करने लगे। पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिम
बंगाल आदि प्रदेशों में खेत-मजदूर या ईंट भट्ठों में मजदूरी करने चले
जाते। अपना परिवार, घर-द्वार छोड़कर पलायन करने लगे।
त्रासदी तो यह हुई कि बाहर प्रदेशों से लोग झारखंड क्षेत्र में
लोटा-कम्बल, झोंटा-सोटा लेकर आने लगे और पैरवी के बल पर
करोड़पति बनने लगे, पर झारखण्ड के लोग पेट भरने के लिए बाहर
पलायन करने लगे। अपने ही धर मे लगे उद्योगों, परियोजनाओं का
कोई लाभ झारखंड़ियों को नहीं मिलने लगा। विकास के नाम
पर झारखंड़ियों का विनाश शुरू हुआ। स्थानीय लोगों की
जमीनों पर बाहर से आए लोगों ने कब्जा करना शुरू कर दिया।
माफिया-संस्कृति के उदय के साथ ही पूरे झारखंड में आतंक का
साम्राज्य बनने लगा। इनके आतंक से स्थानीय लोग त्रस्त रहने
लगे। थाना-पुलिस, प्रशासन में स्थानीय लोगों के नहीं रहने के
कारण, लूट एंव शोषण चरम सीमा पर पहुँच गया। छोटानागपुर
काश्तकरी अधिनियम एवं संथाल परगना काश्तकारी
अधिनियम सिर्फ नाम के लिए रह गये। इन्हें ताख पर रखकर
जमीनों का हस्तांतरण किया जाने लगा। सरकारी जमीनों
की बन्दोबस्ती स्थानीय आदिवासी, हरिजन, गरीब, पिछड़े
लोगों को नहीं करके धनी-मानी एवं बाहर से आए लोगों के
हाथों कर दिया जाने लगा। झारखंडियों से जल-जंगल एवं जमीन
के परम्परागत अधिकार छीनने लगे।
झारखंडियों की जीवन-शैली छिन्न-
भिन्न होने लगी। विकाश के इस दौड़ में अशिक्षित, गरीब
भोले झारखंडी पीछे पड़ गये।
कई आदिवासी समुदाय तेजी से बदलती हुई परिस्थिति में अपने
अस्तित्व की रक्षा भी नहीं कर पाये। बदले आर्थिक दौर एवं
सामाजिक परिवेश से तालमेल नहीं बैठा पाने के कारण
हतोत्साहित होकर बैठ गये।
बिहार के अन्य जिलों यानि झारखंड क्षेत्र से बाहर के जिलों
से आकर बसने वाले प्रवासियों की संख्या में धीरे-धीरे वृद्धि
हुई।
आदिवासी बहूल जिले यानि जनजाति बाहूल जिले अल्पसंख्यक
जिले हो गये। झारंखंड़ क्षेत्र में औद्योगिक मजदूरो की संख्या बढ़ी है। इसमें
भी बाहरी मजदूर सर्वाधिक है। बींसवी शताब्दी के चौथे दशक के बाद से
जो सबसे कठिन समस्या पैदा हुई, वह यह कि “स्थानिय” शब्द
का विस्तार कर दिया गया। उसमें बिहार के सभी जिलों के
व्यक्तियों को शामिल करने के परिणाम स्वरूप छोटानागपुर
तथा संथाल परगना के हिस्सों में यहाँ के मूल-वासियों के
स्थानों पर वे स्थानिय बनकर उनका हिस्सा खा गये।
औद्योगिक प्रतिष्ठान सबसे ज्यादे झारखंड क्षेत्र में स्थापित
किए गये। कारण कि यहीं वो सब संशाधन मौजूद थे।
बाहरी जनसंख्या के इस दबाव के कारण राजनैतिक क्षेत्रों में
भी बाहरी व्यक्तियों का दबदबा बढ़ने लगा। ये बाहरी
जनसंख्या बहुत जल्द सम्पन्न एवं धनी बनने लगे। औद्योगिक
क्षेत्रों में बाहरी मजदूरों के वर्चस्व हो जाने के कारण एवं
बाहरी ऑफिसरों, पदाधिकारियों, कर्मचारियों के रहने के
कारण मजदूर यूनियनों में बाहरी लोग ही नेता बन कर उभरे।
अखिल भारतीय पार्टियाँ इन्ही लोगों को सांसद या
विधान सभा का टिकट देने लगीं। धीरे-धीरे झारखंड राजनैतिक
उपनिवेश बनने लगा।
झारखंड में इस औद्योगिकरण के चलते एवं संस्कृति के प्रवेश के
साथ-साथ यहाँ के सामाजिक जीवन पर भी प्रभाव पड़ने लगा।
झारखंड़ क्षेत्र के लोगों को बाहर के लोगों की भाषा, रहन-
सहन, वेष-भूषा प्रभावित करने लगी। भोजपुरी, बंगला, मगही,
मैथली आदि भाषाएँ यहाँ के लोग भी बोलने लग गये। हिन्दी
तो बोलचाल की भाषा में प्रयोग करने लगे थे। स्थिति ऐसी
बनने लगी कि स्थानीय भाषा कुड़माली, संथाली, मुंडारी
आदि का प्रयोग शहरों में नहीं करने लगे।
जल, जंगल, जमीन से विस्थापन के कारण झारखंडियों का
सांस्कृतिक विस्थापन भी शुरू हो गया था।
इस प्रकार औद्योगिकरण के विस्तार के साथ, मूल झारखंडी की समान रूप से उपेक्षा होने
लगी, जिसके चलते दोनों वर्गो में निकटता बढ़ने लगी। बिहार
सरकार एवं केन्द्र सरकार की उपेक्षापूर्ण नीतियों से इस क्षेत्र
के आदिवासी एवं गैर-आदिवासी सभी मूलवासी शोषण के
शिकार हुए एवं समान रूप से स्वयं को शोषित एवं उपेक्षित समझने
भी लगे।
इस तेजी से बदलती परिस्थिति ने झारखंडियों को यह महसूस
करा दिया कि वे इस बदलती दुनियाँ का हिस्सा नहीं।
विकास की इस दौड़ में उन्हें भागीदारी ही नहीं लेने दी जा
रही है। मुख्य धारा तो क्या उन्हें किसी भी धारा में लाने का
कोई प्रयास नहीं हो रहा है। उन्हें यह लगने लगा कि यह व्यवस्था
ही उनके शोषण के लिए बनी है। वे अपने आप को अलग-थलग
अनुभव करने लगे। एक अलगाववाद की भावना का पैदा होना
स्वाभाविक था, ऐसी परिस्थिति में। इस उपेक्षा एवं शोषण के
प्रतिकार के रूप में उठ खड़ी हुई झारखंड अलग राज्य की माँग।
फिर झारखंड के रुप मे अलग राज्य का उदय हुआ... उसके बाद.... जानने के लिए दुबारा ऊपर से पढ़ना शुरु कीजिये!
Tuesday, 10 January 2017
कुडमी समाज मे धीमा ही सही परिवर्तन तो आ ही रहा है ।
बिल्कुल सही सवाल ।कुडमी समाज मे धीमा ही सही परिवर्तन तो आ ही रहा है ।और अपने हक अधिकार के साथ साथ पुरे झारखंडी समाज के हित और अधिकार के बारे मे सोच भी रहा है ।इन सब के बावजूद हमे एक बात तो स्वीकार करनी ही पड़ेगी कि झारखंड के आदिवासी मूलवासी मे शिक्षा की कमी है ।यही कमी आज हमारी सबसे बड़ी कमजोरी बन गई है ।बिनोद बाबू ने काफी पहले ही इसे पहचान ली थी, शायद इसीलिए उन्होंने "पढो और लढो "का नारा दिया था ।शिक्षा के कमी के कारण हम समझ ही नही पाते है कि हमारा हक क्या है ? और अधिकार क्या है? नतीजा जो बाहरी नेता मिडिया शोषनकर्ता हम झारखंडियो को समझा देते है, हम उन्हे ब्रह्मवाक्य समझ पीछे पीछे चल पडते है ।हा झारखंडियो मे एक बिमारी और है "कोई भी झारखंडी अपने आप को अपने आप को प्रकांड पंडित से कम नही समझते है ।इसलिए स्वयं सत प्रतिशत गलत होने के बावजूद वो अपने को गलत स्वीकार नही करता है और थेथराई पर उतर आता है ।झारखंड मे आजसू नेतृत्व से लेकर स्पोटर्स तक इसी बिमारी के शिकार है ।जहा तक कुडमी समाज की बात है तो आजकल राजनीति की तरह समाज की बात करना भी एक फैशन बन गया है । अधिकांश संगठन किसी न किसी राजनीतिक दल के चमचे द्वारा ही संपोषित एवं संरक्षित है ।जो जरूरत पडने पर उनका उपयोग करते है ।बिनोद मेले के दौरान एक ऐसी बानगी देखने को मिला जब भीड़ जमा करने के लिए बडी बेशर्मी से समाज के नाम का उपयोग किया जा रहा था ।।हा पर सभी संगठन ऐसे नही है ।अभी भी समाज के लिए दुर्दशितापुर्ण और समर्पित ढंग से काम करने वाले लोग भी है जिनकी सोच काफी स्वस्थ है पर स्वस्थ सोच को राजनैतिक नेतृत्व हजम नही कर पा रहे है ।करे भी कैसे? पेट पत्नी पैसा पद पहुच और पावर की राजनीति करने वाले को झारखंड और झारखंडियो की नही अपनी निजी हित सर्वोपरि लगती है ।इन्हे झारखंड और झारखंडियो की मान सम्मान हक अधिकार से कोई लेना-देना नही है । आप सही है, और आशा करता हु सही ट्रेक पर चलते रहेगे ।हमे आप जैसे सही और दुर्दशितापुर्ण सोच वाले युवा पर गर्व है ।