बिनोद बिहारी महतो का निधन एवं प्रभाव
बिनोद बिहारी महतो जब पहली बार सांसद पहुँचे, तो कई काँग्रेस के नेता एवं मंत्री उनसे बात करने के लिए उनके पास गये । श्री नरसिंहा राव उस समय काँग्रेस सरकार के प्रधानमंत्री थे।
श्री राजीव गाँधी को लोक सभा चुनाव के दौरान ही प्रचार के समय चिकमंगलूर में हत्या कर दी गई थी। वरना श्री राजीव गाँधी ही पुनः भारत के प्रधानमंत्री बनते । पर ऐसा नहीं हुआ। पर नरसिंहा राव ने झारखण्ड आन्लोलन के विषय में सोचना छोड़ा नहीं था। स्व0 राजीव राजीव गाँधी ने अपने कार्यकाल में “झारखण्ड मामलों से संबंधित समिति” का गठन किया था, जिसका जिक्र हमने पहले ही किया है। इसकी रिपोर्ट जो मई 1990 में तैयार की गई, रखी हुई थी।
1991 में लोक-सभा चुनाव मई तक सम्पन्न हो सका था। राजीव गाँधी के समान ही झारखंड आन्दोलन एवं इसके प्रभावों की जानकारी श्री नरसिंह राव को थी और वे इसे एक मुकाम देना चाहते थे।
उनके मंत्रियों ने बिनोद बाबू से इस सम्बंध में वार्त्ता की थी। बिनोद बिहारी महतो से सरकार बनाने के लिए समर्थन भी माँगा था। पर बिनोद बाबू का स्पष्ट कहना था कि झारखंड राज्य के विषय में सकारात्मक निर्णय लेने पर ही वे समर्थन दे सकते थे।
तब तक श्री नरसिंह राव स्पष्ट नहीं थे कि झारखंड आन्दोलन के विषय में कौन सा निर्णय लिया जाय। कई कठिनाईयाँ थी। कुछ भी स्पष्ट नहीं था।
पर अचानक दिसम्बर 18, 1991 को बिनोद बिहारी महतो का निधन हो गया था, पर स्थिति डाँमाडोल थी और विपक्ष अविस्वास प्रस्ताव लाने की तैयारी कर रहा था। बिनोद बाबू के निधन के बाद न सिर्फ बिहार की राजनीति में व्यापक प्रभाव पड़ा, वरन पूरे देश में राजनैतिक हलचल बढ़ गई। झामुमो के छः सांसद थे और वे विपक्ष में बैठे थे। शिबू सोरेन काँग्रेस के नजदीकी माने जाते थे और बिनोद बाबू वामपंथी पृष्ठ भूमि के थे। विपक्ष में उस समय भारतीय जनता पार्टी, जनता दल, वामपंथी पार्टियाँ एवं अन्य कई दल काँग्रेस के विरोध में थे।
बिनोद बाबू की मृत्यु के पश्चात बिहार में राजनैतिक समीकरण गड़बड़ाने लगा था। लालू प्रसाद के लिए परेशानी थी।
उसी प्रकार केन्द्र में काग्रेस इस चक्कर में थी कि झामुमो के सांसदों को अपने पक्ष में कर लिया जाय। राजनैतिक शह-मात का खेल शुरू हो गया था।
झारखंड क्षेत्र में न सिर्फ झामुमो समर्थकों, वरन् झारखण्ड नामधारी दलों के साथ-साथ वामपंथियों, शिक्षा-विदों एवं अन्य कई सामजि संगठनों में शोक की लहर दौड़ गई। झारखंड की आम-गरीब जनता उनके निधन से आहत थी ओर किंकर्त्तव्यविमूड़ थी। दूसरी तरफ झारखंड के शोषणकर्त्ता खुश थे।
खुले आम जश्न मनाकर अपनि खुशी का इजहकर कर चुके थे। झारखंड आन्दोलन को एक जोरदार झटका बिनोद बाबू के निधन से लगा।
राष्ट्रीय दलों जैसे काँग्रेस पार्टी तथा भारतीय जनता पार्टी के साथ-साथ वामपंथी दलों ने अपनी सक्रियता झारखंड क्षेत्र में बढ़ानी शुरू कर दी थी। वह समय एक ऐसा समय था जब राजनैतिक महकमें में कई अटकले लगाई जा रही थी।
इससे एक समस्या और उत्पन्न हो गई थी। कई जगहों के विस्थापितों के हजारों मामले बिनोद बाबू विभिन्न कोर्ट-कचहरियों में लड़ रहें थे, उन मामलों में भी ग्रहण लगना शुरू हो गया था।
खासकर बोकारो, धनबाद आदि जिलों में भू-अर्जन अधिनियम के तहत हजारों केस बिनोद बाबू ने एक वकील की हैसियत से दायर किए थे, जो उनकी मृत्यु के बाद दूसरे वकीलों द्वारा चलाए जाने के प्रयास भी शुरू हो गये थे। दर्जनों शिक्षण संस्थाओं का भविष्य भी खतरे में पड़ गया था जो उनके द्वारा स्थापित या संचालित थे।
मैं झारखंड आन्दोलन के साथ शुरू से ही जुड़ा हुआ था। तथा अपने पिता बिनोद बिहारी महतो का प्रशंसक रहा था। अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई इंडियन स्कूल ऑफ माइन्स धनबाद से पूरी करके मैं सुदामडीह कोलियरी में कार्यरत था तथा 1972 में कोलियरी छोड़ दिया था। 1969 के आस पास शिवाजी समाज के आन्दोलनों में तथा अन्य प्रकार के कई कार्यक्रमों में ज्यादे सक्रिय हो जाने के कारण बिनोद बाबू पर कई मुकदमें लादे गये थे।
उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा था। आपात काल के लागू होने के पहले वे इतने ज्यादे उलझ गये कि उन्हे “मिसा” के तहत 1974 में गिरफ्तार करके कारागार में बंद कर दिया गया। पहले उन्हें भागलपूर सेंट्रल जेल तथा बाद में उन्हें बाँकीपुर पटना सेंट्रल जेल में बंद रखा गया था। मैं घर का बड़ा था। मुझे छोड़कर सभी भाई बहन पढ़ाई कर रहें थे। बड़ी मुश्किल हो गई थी। कोलियरी में मेरा आना-जाना का हो गया। इन्हीं झंझटो से आजिज आकर मैंने कोलियरी से सदा के लिए अलविदा कह दिया।
यहीं पर छोटा-मोटा कारोबार करके घर में ही रहने लगा। पिताजी के मुकदमों को पटना हाईकोर्ट सेलेकर सुप्रीम कोर्ट तक मुझे लड़ना पड़ा। पिताजी के “मिसा” कानून के तहत दायर किया गया केस अपने आप में एक अनूठा केस था जो 1974 के ए0 आइ0 आर0 के सुप्रीम कोर्ट के फेसलों में दर्ज है। इस दौरान मुझे कोर्ट कचहरी तथा जेलों के चक्कर काटने पड़े थे। इस केस में हार जाने के बाद मैंने तय कर लिया कि वकील बनूँगा। 1971 में मैंने लॉ कॉलेज छोटानागपुर, राँची में दाखीला ले लिया था। पर परीक्षा में 1975 में बैठा। इस प्रकार 1977 तक मैं धनबाद, गिरिडीह, हजारीबाग जिलों में झमुमो के आन्दोलन के साथ-साथ जुड़ा रहा।
मैंने 1973 में धनबाद म्यूनिसिपैलटी का चुनाव लड़ा, वार्डो में अपना उम्मीद्वार दिया। बिनोद बाबू, कॉमरेड राय मेरे साथ तो थे, पर उन्होनें इस चुनाव में मुझे अपने ढंग से कार्य करने दिया। नतीजा यह निकला कि मैनें अपने साथियों का बहुमत प्राप्त कर लिया। काँग्रेस के दबंग नेताओं, वी0 पी0 सिन्हा, शंकर दयाल सिंह जैसे दिग्गज नेतओं के प्रतिरोध के बावजूद यह बहुमत हासिल किया था,
तथा बिनोद बाबू के कथनानुसार उनके पुराने साथियों सचिन चन्द्र मल्लिक को चैयरमैन तथा हरिहरप्रसाद जी को वाइस चैयरमैन बनाया। 1977 के बाद मैं 1978 में राँची चला आया था, पर राजनीति से अलग नहीं हो सका। राँची जिले में तब झारखंड मुक्ति मोर्चा का कोई संगठन नहीं था। इस समय तक झामुमो का संगठन उत्तरी छोटानागपुर तथा संथाल परगना तक ही सीमित था। दक्षिणी छोटानागपुर में झारखंड नामधारी अन्य दल सक्रिय थे।
मैं श्री इन्द्रनाथ महतो अधिवक्ता, त्रिदीप घोष, बिरसा उराँव, मानवघोष दस्तीदार भाई हॉलेन कुजूर, शिव नन्दन महतो, बिरसा उराँव आदि कुछ गिने चुने लोगों के साथ झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन राँची में किया। 1980 में हिनू मे हमारे एक साथी एतवा उराँव आदिवासी जमीन बचाने के विवाद में जमीन-माफियाओं के द्वारा मार दिया गया। तब झामुमो के आन्दोलन ने जोर पकड़ा। कई सहकारी समितियों के जमीनों पर हमने हरा झंड़ा गाड़कर उनके कार्यो को रोका। तथा कई जगहों पर विस्थापित आन्दोलन की शुरूआत की।
इसके बाद सिंहभूम जिलों से कई साथी आए एवं मुझसे मिले। इस बीच मैने कई कार्यक्रमों में बिनोद बाबू एवं ए0 के0 राय एवं शिबू सोरेन को शिरकत करवाया। सघनू भगत (बाद में मंत्री) भी पार्टी में शामिल हुए। मेरी सिफारिश पर 1980 में भाई हॉलेन कूजूर को झामुमो तथा मासस ने विधान परिषद् का सदस्य बनवाया। अर्जुन महतो (बाद में विधायक) मेरे कहने पर झामुमो में आए। मैने उन्हें बिनोद बाबू के पास भेज दिया था।
पर धीरे-धीरे मैं वकालत में मशगुल हो गया। पर इससे राजनीति से मेरा सम्बन्ध टूटा नहीं। सक्रिय राजनीति में मेरा दखल का जरूर हो गया। पर फिर भी बिनोद बाबू के चुनाओं मे मैं ही चुनाव प्रभारी हुआ करता और तब क्षेत्र का दौरा करता।
आनन्द महतो, कॉमरेड राय को भी चुनावों में क्षेत्र मे जाकर मदद करता। एक फायदा तो वकालत से हो ही गया था। विभिन्न राजनैतिक दलों के लोग जो मेरे पिताजी से संबंध रखते थे, मेरे पास अपने मुकदमें की पैरवी करने आते। इसके अलावा मेरा आयाम राँची मे रहने के कारण बढ़ गया था। पूरे झारखंड के लोग मेरे पास मुकदमें लेकर आते।
मेरे पिता बिनोद बिहारी महतो की अचानक मृत्यु ने मुझे बड़ी असमंजस की स्थिति मे डाल दिया था। परिस्थिति ऐसी पैदा हो गई कि मुझे अपने सरकारी वकील का पद छोड़कर राजनीति मे वापस आना पड़ा। तेरह वर्षो की कड़ी मेहनत के बाद मै सरकारी वकील बना था, केरियर को बनाया था। भविष्य मे हाईकोर्ट जज के पद पर जा सकता था, पर जहाँ से चला वहीं आकर फिर खड़ा हो गया।
एक कैरियर माइनिंग इंजीनियर का छोड़ चुका था तो दूसरा भी छूट गया था। राजनीति में वर्चस्व की लड़ाई में अक्सर मुद्दे पीछे छूट जाते है। मैं झारखंड आन्दोलन को आगे बढ़ाने तथा पृथक झारंखड राज्य बनाने के मुद्दे के साथ राजनीति में आया था, पर मुझे घोर आश्चर्य हुआ कि बिनोद बिहारी महतो की मृत्यु के बाद राजनैतिक महत्वाकांक्षा ने व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा का रूप ले लिया था। कॉमरेड ए0 के0 राय तथा शिबू सोरेन व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को पूरा करने में लग गये थे। अलग राज्य का मुद्दा भूला दिया गया। न सिर्फ भूला दिया गया था, वरन् इसके विरूद्ध कॉमरेड राय तथा शिबू सोरेन दोनों ने मुहिम छेड़ दिया।
इस महत्वाकांक्षा की लड़ाई में काँग्रेस ने शिबू सोरेन को पटाकर बिहार से लालू प्रसाद की सरकार को गिराने का प्रयास शुरू कर दिया। पुनः काँग्रेस को बिहार की गद्दी में बैठने के लिए शिबू सोरेन सक्रिय हो गये।
केन्द्र में काँग्रेस शिबू सोरेन के सांसदों को अपने पक्ष में करने का प्रयास करने लगी
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