"बिनोद बाबु"
जी हां, झारखंड के जनक बिनोद बिहारी महतो को यहां की जनता इसी नाम से जानती-मानती है।
कोयलांचल, लोहांचल की धरती मे यह नाम पिछले कई दशकों से सर्वाधिक आदर व सम्मान सूचक नाम रहा है। इस क्षेत्र मे बिनोद बाबू का वही स्थान है जो रांची क्षेत्र मे बिरसा मुंडा का।
साधारण गरीब कुड़मि किसान परिवार मे जन्मे बिनोद बिहारी महतो धनबाद जिले के बलियापुर प्रखंड के बड़ादाहा गांव के माहिंदी महतो व मंदाकिनी माहताइन के एकलौते पुत्र थे। 23सितंबर 1921मे इनका जन्म हुआ। बचपन से ही दृढ़-इच्छाशक्ति के धनी रहे बिनोद बाबु गांव से जंगल के रास्ते नित्य 15 किलोमीटर पैदल चलते हुए अपने इलाके के पहले मैट्रिक पास करने वाले छात्र थे।ये रास्ता चलते हुए "सोहराई " गीतों के सुर मे पाठ जोर जोर से याद किया करते थे जिसे सुनकर राहगीर भौंचक हो उन्हे ताकते रह जाते। इनकी मां घर मे उगाई सब्जियां बेच कर इनकी पढ़ाई का खर्च वहन करती थी। आगे चलकर उन्होने वकालत पूरी की और धनबाद के उसी कोर्ट मे पहुंचे जहां एक समय किरानी रहते वे एक वकील से तिरस्कृत हुए थे।
एक वकील के तौर पर उन्होने अपने क्षेत्र के जनजीवन की कठिनाईयों त्रासदियों व सामंतवादी अत्याचारों को तीव्रता से महसूस किया व इन्हे इनसे मुक्त होने की दिशा मे अपना जीवन अर्पित करने की ठान ली। विशेषकर बोकारो स्टील प्लांट की स्थापना के दौरान विस्थापितों पर हुए अत्याचारों से वे इतने मर्माहत हुए कि इनकी हक की लड़ाई लड़ना ही अपने जीवन का परम उद्देश्य बना लिया। ऐसे महत्वपुर्ण कालक्रम मे उनसे ए के राय और शिबु सोरेन जुड़ गये। यह 1966- 67 का वर्ष था जिसने झारखंड आंदोलन की दिशा- दशा ही तय कर दी थी। इससे पुर्व शिबू सोरेन "सोनोत-संताल समाज सूधार समिति" , एके राय सिंदरी मे "मजदूर युनियन" और बिनोद बाबु "शिवाजी समाज" आंदोलन द्वारा जनप्रिय छवि बना चुके थे परंतु क्षेत्र की राजनीति मे इन तीनो की धमक अबतक नही हो पायी थी और कांग्रेस की सामंतवादी राजनीति का प्रभुत्व पुरे कोयलांचल पर हावी था। इधर बिनोद बाबु गांव गांव मे अपनी ठेठ शैली मे जनअदालत लगाकर समाज के सताये गये लोगों को न्याय दिलाने की मुहिम मे रत थे।उनकी वाणी मे गरज और जोश ने क्रांतिकारी सामाजिक पृष्ठभूमि तैयार कर दी और आततायी दबंग उनके नाम सुनते ही सिहरने लगे।उन्होने यह बड़ी तीव्रता से महसूस कर लिया था कि सरकारी न्याय व्यवस्था से इतर जनअदालतो के माध्यम से अपढ़ गरीब ग्रामीणो को न्याय दिलाने की पहल करनी होगी और साथ ही इन्हे अबतक रहे अशिक्षा के घोर अंधकार से बाहर निकालना होगा। शायद यही कारण था कि कभी किसी मंदिर मस्जिद निर्माण हेतू एकपैसा भी चंदा नही देने वाले बिनोद बाबू ने क्षेत्र मे स्कूल कालेज खोलने हेतू मुक्त हस्त धन-जमीन दान किया था। उनके द्वारा धनबाद-पुरुलिया-बोकारो-गिरीडीह क्षेत्र के अनेकों सुदूरवर्ती गांवो मे खुले स्कूल व कालेजो मे उनके सपनो को पंख लग रहे है। झारखंड आंदोलन के पुरोधा बनकर इन्होने न सिर्फ अलग राज्य निर्माण की नींव मजबूत की बल्कि शिक्षा आंदोलन के द्वारा सदियो से पिछड़े क्षेत्रो को राष्ट्र की मुख्यधारा मे लाने का प्रशंसनीय काम किया। उनका "पढ़ो और लड़ो" नारा सदियो से दमित जनजीवन के बीच धूमकेतू बनकर पुरे झारखंड के जनमानस मे कौंधने लगा था। परंतु यह झारखंड के लिए अतिशय दूर्भाग्य रहा कि अलग राज्य आंदोलन को मंझधार मे छोड़ अचानक उन्होने अलविदा ले ली। 18 दिसंबर1991 को दिल्ली संसद भवन मे अचानक उनकी तबियत बिगड़ जाने और थोड़ी ही देर पश्चात हुए उनके निधन से पुरा झारखंड रो पड़ा। परंतु उनका सपना अंततः पुरा हुआ और दशकों से चले आंदोलन ने झारखंडवासियों को 15नवंबर2000 मे नये राज्य की सौगात दी। झारखंड को औपनिवेशिक लूट से बचाने, झारखंडी सभ्यता संस्कृति को अक्षुण्ण रखने व झारखंडी भाषाओं को प्रतिष्ठित करने ने वे जीवन पर्यंत जुटे रहे। वे ग्रामीण जनो से हमेशा अपनी मातृभाषा कुड़मालि मे ही बोलते व अपनी भाषा का सम्मान करने को प्रेरित करते थे।
आज भी उनके विचारो और उनकी छवि के बिना कोई झारखंड नामधारी पार्टी की राजनीति नही चल सकती। वे सच्चे अर्थों मे झारखंड के जनक थे, है और रहेंगें।सधन्यवाद-
महादेव महतो डुंगरिआर
Pic - Ajayshankar Mahato
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