Tuesday, 8 November 2016

मेरा झारखंड जल रहा, कोई नहीं बुझानेवाला

मेरा झारखंड जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला
घर-आंगन में आग लग रही।
सुलग रहे वन -उपवन,
दर दीवारें चटख रही हैं
जलते छप्पर- छाजन।
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तन जलता है , मन जलता है
जलता जन-धन-जीवन,
एक नहीं जलते सदियों से
जकड़े गर्हित बंधन।
दूर बैठकर ताप रहा है,
आग लगानेवाला,
मेरा झारखंड जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला।
आज धार्मिक बना,
धर्म का नाम मिटानेवाला
मेरा झारखंड जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला।
बिरसा, सिद्धू-कान्हू,
बिनोद बाबू, निर्मल महतो बलिदानी,
सोच रहें होंगें, हम सबकी
व्यर्थ गई कुरबानी
जिस धरती को तन की
देकर खाद खून से सींचा ,
अंकुर लेते समय उसी पर
किसने जहर उलीचा।
हरी भरी खेती पर ओले गिरे,
पड़ गया पाला,
मेरा झारखंड जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला।
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